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योग केवल आसनों और व्यायाम का नाम नहीं है। यह भारत की प्राचीनतम परम्परा का वह अमूल्य रत्न है जो तन, मन और आत्मा तीनों का संतुलन स्थापित करता है। आज विश्वभर में ‘योग’ एक जीवन शैली बन चुका है, परंतु इसका मूल, इसकी गहराई और इसका आध्यात्मिक महत्व समझना आवश्यक है। एक संस्कृत विद्वान और आध्यात्मिक साधक के नाते यह लेख उसी दिशा में एक प्रयास है — कि लोग जान सकें योग वास्तव में क्या है, इसका जन्म कैसे हुआ, सनातन धर्म और वेदों में इसका स्थान क्या है, और आधुनिक जीवन में यह कितनी आवश्यकता है।
योग का अर्थ और व्युत्पत्ति
‘योग’ शब्द संस्कृत धातु “युज्” से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है – जोड़ना, एकीकृत करना, या मिलाना। यह जोड़ आत्मा का परमात्मा से, शरीर का मन से, व्यक्ति का ब्रह्मांड से है।
भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
“योगः कर्मसु कौशलम्।”
अर्थात्, योग कर्मों में कुशलता है।
योग का उद्भव : कब और कहाँ से आया?
योग की उत्पत्ति का स्पष्ट समय बताना कठिन है क्योंकि यह ज्ञान अत्यंत प्राचीन है। परंतु वेदों और उपनिषदों में इसके प्रामाणिक उल्लेख मिलते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद – चारों वेदों में ध्यान, तपस्या, प्राणायाम और समाधि के स्वरूप में योग के तत्व विद्यमान हैं।
प्राचीन ग्रंथों में योग
- ऋग्वेद में ऋषि ध्यान की स्थिति का वर्णन करते हैं, जो योग की मूल अवस्था है।
- कठोपनिषद में यम-नचिकेता संवाद में आत्मा और योग का रहस्य समझाया गया है।
- श्वेताश्वतर उपनिषद में स्पष्ट कहा गया है: “युञ्जते मनसा योगं, योगो हि परमं तपः।”
- पतंजलि योगसूत्र (ईसा से लगभग 200 वर्ष पूर्व) में योग को विज्ञान के रूप में व्यवस्थित रूप दिया गया।
पतंजलि और योगदर्शन
महर्षि पतंजलि को ‘योगशास्त्र का जनक’ माना जाता है। उन्होंने योग को एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया। उनका प्रसिद्ध ग्रंथ “योगसूत्र” चार पादों में विभक्त है:
- समाधिपाद
- साधनपाद
- विभूतिपाद
- कैवल्यपाद
पतंजलि योग को इस प्रकार परिभाषित करते हैं:
“योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।”
अर्थात्, मन की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
अष्टांग योग : जीवन का सम्पूर्ण मार्गदर्शन
पतंजलि ने आठ अंगों वाला योग मार्ग बताया, जिसे अष्टांग योग कहा जाता है:
- यम – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह
- नियम – शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान
- आसन – स्थिर व सुखद स्थिति में बैठना
- प्राणायाम – श्वास-प्रश्वास पर नियंत्रण
- प्रत्याहार – इंद्रियों का नियंत्रण
- धारणा – एकाग्रता
- ध्यान – ध्यानाभ्यास
- समाधि – आत्मा का परमात्मा में लीन होना
ये आठों अंग मिलकर योग का पूर्ण स्वरूप प्रस्तुत करते हैं।
योग और सनातन धर्म
सनातन धर्म में योग केवल साधना या तप नहीं, बल्कि जीवन का मूल आधार है। हर ऋषि, मुनि, तपस्वी, संत, और देवता योग के किसी न किसी रूप में स्थित रहे हैं।
- भगवान शिव को आदियोगी कहा जाता है।
- भगवान विष्णु योगनिद्रा में विश्राम करते हैं।
- भगवान श्रीकृष्ण स्वयं गीता में योग का उपदेश देते हैं।
गीता एक अत्यंत महान योगग्रंथ है जिसमें विभिन्न योगों का वर्णन है:
- ज्ञानयोग
- कर्मयोग
- भक्तियोग
- राजयोग
योग के प्रकार
आज के समय में योग के कई प्रकार लोकप्रिय हैं, परंतु प्राचीन ग्रंथों के अनुसार निम्नलिखित योग उल्लेखनीय हैं:
1. हठयोग
शारीरिक शक्ति, आसनों और प्राणायाम पर केंद्रित। गोरखनाथ और नाथ संप्रदाय से जुड़ा।
2. राजयोग
मन के नियंत्रण और ध्यान द्वारा आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया।
3. ज्ञानयोग
ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हेतु विवेक, वैराग्य और स्वाध्याय का मार्ग।
4. भक्तियोग
ईश्वर में पूर्ण समर्पण, भक्ति और प्रेम का मार्ग।
5. कर्मयोग
निष्काम कर्म करते हुए योग की अवस्था प्राप्त करना।
योग का वैज्ञानिक महत्व
आधुनिक चिकित्सा और विज्ञान ने यह स्वीकार किया है कि योग:
- तनाव को कम करता है।
- रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है।
- हृदय, फेफड़ों और मस्तिष्क को सशक्त करता है।
- मानसिक संतुलन और भावनात्मक शांति देता है।
आज अमेरिका, यूरोप, जापान जैसे देशों में योग एक चिकित्सा प्रणाली बन चुका है।
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस
भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के प्रयास से 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया गया। 2015 से यह पूरे विश्व में मनाया जा रहा है।
यह न केवल भारतीय संस्कृति का सम्मान है बल्कि पूरे विश्व को शांति, स्वास्थ्य और संतुलन की ओर ले जाने वाला प्रयास है।
वर्तमान संदर्भ में योग की आवश्यकता
आज के समय में मनुष्य तनाव, भौतिकवाद और मानसिक असंतुलन से ग्रस्त है। योग ही एक ऐसा मार्ग है जो—
- जीवन में संतुलन लाता है,
- भीड़ में भी एकांत का अनुभव कराता है,
- बाहरी दिखावे से हटाकर आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाता है।
निष्कर्ष
योग केवल शरीर को लचीला बनाने का साधन नहीं, यह आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का महान विज्ञान है। यह भारत की वह अमूल्य धरोहर है जो वेदों से चली, पतंजलि से सँवरी और आज सारे विश्व को दिशा दे रही है।
हमें गर्व है कि हम उस परंपरा के उत्तराधिकारी हैं जहाँ योग केवल अभ्यास नहीं बल्कि जीवन का सार है।
“योगिना चित्तस्य पदेन वाचां, मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।
योपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां, पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि।”