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आदि शंकराचार्य भारतीय दर्शन और अध्यात्म के इतिहास में एक ऐसा नाम है, जो सदियों से मानवता के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। उनका जीवन केवल ज्ञान का प्रसार नहीं था, बल्कि एक ऐसे युग प्रवर्तक का था, जिसने भारतीय समाज में भटकती आध्यात्मिक धारा को एकजुट किया। इस महान आत्मा का जीवन त्याग, विद्वता और भक्ति का अद्भुत संगम है।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
आदि शंकराचार्य का जन्म 788 ई. में केरल के कालडी गांव में हुआ। उनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम आर्यांबा था। शंकर का जन्म एक चमत्कारी घटना के रूप में देखा जाता है। शिवगुरु और आर्यांबा ने लंबे समय तक संतान प्राप्ति के लिए तपस्या की। भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया और उनके पुत्र के रूप में स्वयं अवतरित हुए।
शंकर बाल्यकाल से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। पांच वर्ष की आयु में उन्होंने संस्कृत और वेदों का अध्ययन आरंभ कर दिया। मात्र आठ वर्ष की आयु में वे वेदों और शास्त्रों में पारंगत हो गए। उनकी स्मरण शक्ति और तर्क शक्ति अद्वितीय थी।
संपूर्ण ब्रह्मचर्य और सन्यास का संकल्प
शंकर बचपन से ही वैराग्य की ओर झुके हुए थे। उनकी माता उन्हें एक सामान्य गृहस्थ जीवन के लिए तैयार कर रही थीं, लेकिन शंकर का हृदय साधना और ज्ञान की ओर उन्मुख था। एक दिन, शंकर नदी में स्नान कर रहे थे। अचानक एक मगरमच्छ ने उनका पैर पकड़ लिया। उन्होंने अपनी मां से सन्यास की अनुमति मांगी, यह कहते हुए कि यदि उन्होंने सन्यास नहीं लिया, तो उनकी मृत्यु हो जाएगी। मजबूरी में, उनकी मां ने अनुमति दी, और इसी के साथ शंकर ने संन्यासी जीवन का प्रारंभ किया।
गुरु की खोज और अद्वैत दर्शन की प्राप्ति
सन्यास लेने के बाद, शंकर ने अपने गुरु की खोज शुरू की। वे उत्तर भारत के ओंकारेश्वर नामक स्थान पर पहुंचे, जहां उनकी भेंट महान संत गोविंद भगवत्पाद से हुई। गोविंद भगवत्पाद ने उन्हें वेदांत दर्शन और अद्वैत वेदांत की गहन शिक्षा दी।
अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत यह है कि ब्रह्म और जीव आत्मा एक ही हैं। इस दर्शन का मुख्य संदेश है,
“ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव न परः।”
इसका अर्थ है कि केवल ब्रह्म ही सत्य है, और संसार माया है। जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है।
शंकराचार्य का दार्शनिक योगदान
शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत को एक ठोस रूप दिया और भारतीय समाज में इसे पुनः स्थापित किया। उनके समय में, विभिन्न मत-मतांतरों और अंधविश्वासों ने भारतीय दर्शन को भ्रमित कर दिया था। शंकर ने अद्वैत वेदांत के माध्यम से भारतीय समाज को एक सुसंगत और वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान किया।
उन्होंने उपनिषदों, भगवद गीता और ब्रह्मसूत्र पर अद्वितीय भाष्य लिखे। उनके ग्रंथों ने न केवल तत्कालीन समाज को दिशा दी, बल्कि आज भी भारतीय दर्शन के अध्ययन में मार्गदर्शन करते हैं।
चार मठों की स्थापना
भारतीय संस्कृति और धर्म को संगठित करने के लिए शंकराचार्य ने देश के चार दिशाओं में चार मठों की स्थापना की:
- ज्योतिर्मठ (उत्तर – बद्रीनाथ)
- शारदा मठ (पश्चिम – द्वारका)
- गोवर्धन मठ (पूर्व – पुरी)
- श्रृंगेरी मठ (दक्षिण – कर्नाटक)
इन मठों के माध्यम से उन्होंने धर्म, संस्कृति और ज्ञान के प्रचार-प्रसार को एक व्यवस्थित रूप दिया।
दिग्विजय यात्राएँ और शास्त्रार्थ
शंकराचार्य ने पूरे भारत में यात्रा की और विभिन्न मतों के विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ किए। उनका उद्देश्य यह नहीं था कि वे अपनी श्रेष्ठता साबित करें, बल्कि भारतीय समाज में फैले भ्रम को दूर करना था।
- काशी में, उन्होंने मंडन मिश्र के साथ प्रसिद्ध शास्त्रार्थ किया। यह शास्त्रार्थ 15 दिनों तक चला। मंडन मिश्र की पत्नी, भारती, ने मध्यस्थता की। अंततः मंडन मिश्र ने अपनी हार स्वीकार की और शंकर के शिष्य बन गए।
- उन्होंने बौद्ध धर्म, जैन धर्म, मीमांसा और तंत्र के विद्वानों के साथ भी शास्त्रार्थ किए और अद्वैत वेदांत के सिद्धांत को स्थापित किया।
अद्वैत वेदांत की व्यावहारिकता
शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत केवल दर्शन तक सीमित नहीं था। उन्होंने इसे व्यावहारिक जीवन में लागू किया। उनका संदेश था कि ईश्वर हर जगह है और प्रत्येक जीव में वास करता है। उन्होंने भक्ति और ज्ञान को संतुलित करने पर जोर दिया।
उन्होंने विभिन्न स्तोत्रों की रचना की, जिनमें शिवानंद लहरी, सौंदर्य लहरी, भज गोविंदम, और विवेकचूड़ामणि प्रमुख हैं। ये रचनाएँ न केवल दार्शनिक हैं, बल्कि भक्ति और प्रेम से ओतप्रोत हैं।
एक रोचक घटना: आत्मज्ञान की परीक्षा
शंकराचार्य की एक रोचक घटना प्रसिद्ध है। एक बार, वे काशी में गंगा किनारे जा रहे थे। तभी एक चांडाल (नीच जाति का व्यक्ति) उनके रास्ते में आ गया। शंकर ने उसे हटने को कहा। चांडाल ने उत्तर दिया,
“आप किसे हटा रहे हैं, मेरे शरीर को या मेरी आत्मा को? यदि आत्मा को, तो वह तो ब्रह्म है, और यदि शरीर को, तो वह तो नश्वर है।”
यह सुनकर शंकर को आत्मज्ञान हुआ कि ब्रह्म हर जीव में समान रूप से व्याप्त है। इस घटना ने उनके दर्शन को और भी सशक्त किया।
जीवन का अंत और समर्पण
आदि शंकराचार्य ने मात्र 32 वर्ष की आयु में ही अपना जीवन समाप्त कर दिया। उन्होंने हिमालय के केदारनाथ में अपना शरीर त्याग दिया। उनकी अल्पायु में भी उन्होंने जो कार्य किया, वह अद्वितीय है।
शंकराचार्य से सीखने योग्य बातें
- ज्ञान और भक्ति का संतुलन: शंकराचार्य ने दिखाया कि ज्ञान और भक्ति का एक साथ होना आवश्यक है।
- सार्वभौमिकता: उन्होंने सिखाया कि धर्म, जाति और भेदभाव से परे, हर जीव में ईश्वर का वास है।
- संघर्ष और संकल्प: अल्पायु में भी उन्होंने अपने कार्यों से अमरत्व प्राप्त किया।
विरासत और प्रेरणा
आदि शंकराचार्य का जीवन भारतीय संस्कृति का स्तंभ है। उन्होंने न केवल भारत को, बल्कि पूरे विश्व को ज्ञान और भक्ति का संदेश दिया। उनकी शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक हैं और हमें अपने जीवन में सच्चे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती हैं।
“आदि शंकराचार्य का जीवन एक दर्पण है, जो हमें दिखाता है कि समर्पण, ज्ञान और भक्ति के माध्यम से हम जीवन को अर्थपूर्ण बना सकते हैं।”